मैं सियासत के शहर में रहता हूं
यहां सहर कब होती है
किसी को पता नहीं चलता
मैंने बहुत कोशिश की
तुमसे मुहब्बत कर लूं
इतनी मुस्कुराहटों के बाद भी
सबकुछ अजनबी सा लगता है
कुछ भी तो नहीं है यहां
मेरा गांव, घर, आंगन
मेरे खेत खलिहान
सब मुझे वापस बुलाते हैं
मैंने बहुत कोशिश की
इस कैद से रिहा हो जाउं...
3 टिप्पणियां:
सबकुछ अजनबी सा लगता है.....बहुत खूब.लिखते रहिये...
maine kaha tha na ki achchha likhate ho...aise hi likhate raho...ham sab ki dua hai
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