रविवार, 21 नवंबर 2010

एक रोज...

सुबह का अखबार
चाय की प्याली और
एक अधजली सिगरेट
तुम्हें सोचता हूं
एक घूंट पीता हूं
और सांस लेता हूं
आखिरी कश के साथ
तुम कहीं भीतर सी उतर जाती हो
सिगरेट का धुआं
जलता है, सुलगता है
धमनियों में बहता है
मैं सड़क पर खड़ा हूं
वो तुम्हारे घर को जाती है
एक खिड़की गली में खुलती है
मैं अजनबी सा गुजर जाता हूं...

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

ज़िंदगी सी लगती हो...

ज़िंदगी मुस्कुराने के
बहाने कम देती है
तुम भी कहाँ
रोज मिलती हो
तुम ज़िंदगी सी लगती हो
तेरे बदन को छूती हैं हवाएं
सिहर मैं जाता हूं
सूरज रोज
तेरे आंगन में झांकता है
मैं कहूं तो किस से कहूं
देखता वो तुम्हें है
और जल मैं जाता हूं
ज़िंदगी सी लगती हो
चांद भी कम शरीर नहीं है
मैं पूछता तेरे बारे में हूं
जवाब वो तुमको देता है
ज़िंदगी सी लगती हो
चाय की इक प्याली
तुम्हारे लबों से
शीरीं हो जाती है
पीती तुम हो
भीग मैं जाता हूं
जिंदगी सी लगती हो
कभी आओ अपने घर
कि मरने से पहले
मैं इक बार जी लूंगा
तुम समझ लेना
कोई था
जो गुजर गया
मैं कहूं तो किस से कहूं
रात अंधेरा नहीं लगता
मैं अब अपना नहीं लगता
तुम ज़िंदगी सी लगती हो...

तुम्हारी बातें...

तुम मिलो तो तुमसे कहूं
कितनी शीरीं हैं तुम्हारी बातें
तेरे बिन दिन खाली खाली सा लगता है
चाय में शक्कर बेमानी सा लगता है
शाम भी तन्हां है, मेरी तरह
मैं अधूरा, रात अधूरी, बात अधूरी
सब रतजगा करते हैं
रस्ता तुम्हारा तकते हैं
तुम मिलो तो तुमसे कहूं
कितनी शीरीं हैं तुम्हारी बातें...

तेरी राह से...

एक कतरा धूप है, फिर घनी छांव
ज़िंदगी यूं गुजरती है तेरी राह से
कैसा सफ़र है, तू पास है, करीब नहीं
तू है, तेरी बात है पर मैं नहीं
तेरी आस है, प्यास है
साँस है पर जीने का एहसास नहीं
तेरा अक्स है, वज़ूद है
तेरी ही तलाश है
ज़िंदगी यूं गुजरती है तेरी राह से...