मैं सियासत के शहर में रहता हूं
यहां सहर कब होती है
किसी को पता नहीं चलता
मैंने बहुत कोशिश की
तुमसे मुहब्बत कर लूं
इतनी मुस्कुराहटों के बाद भी
सबकुछ अजनबी सा लगता है
कुछ भी तो नहीं है यहां
मेरा गांव, घर, आंगन
मेरे खेत खलिहान
सब मुझे वापस बुलाते हैं
मैंने बहुत कोशिश की
इस कैद से रिहा हो जाउं...
गुरुवार, 30 दिसंबर 2010
सोमवार, 27 दिसंबर 2010
बात नहीं होती...
पहले जैसी रात नहीं होती
तेरी मेरी बात नहीं होती
मैं गीतों में बहता रहता हूं
तेरी कहानी कहता रहता हूं
सावन में बरसात नहीं होती
सपने तेरे मिलने आते हैं
आंखों में नींद नहीं होती
तुमको मेरी कमी नहीं होती
मैं होता हूं, तुम नहीं होती
तेरी मेरी बात नहीं होती...
तेरी मेरी बात नहीं होती
मैं गीतों में बहता रहता हूं
तेरी कहानी कहता रहता हूं
सावन में बरसात नहीं होती
सपने तेरे मिलने आते हैं
आंखों में नींद नहीं होती
तुमको मेरी कमी नहीं होती
मैं होता हूं, तुम नहीं होती
तेरी मेरी बात नहीं होती...
रविवार, 26 दिसंबर 2010
धूप रूठी है...
जाने किस बात पर धूप रूठी है
मैं भोर का इंतजार करता रहा
तेरी चाहत का कोहरा घना है
मैं ओस पर चलता रहा
एक आस थी तुम्हें छूने की
मैं हमेशा मचलता ही रहा
दिन तो रोज मिलने आता है
मैं तेरे तसव्वुर में सोया रहा
सांस चलती है, ठहरती है
मैं तेरा नाम लेता रहा
मैं भोर का इंतजार करता रहा
तेरी चाहत का कोहरा घना है
मैं ओस पर चलता रहा
एक आस थी तुम्हें छूने की
मैं हमेशा मचलता ही रहा
दिन तो रोज मिलने आता है
मैं तेरे तसव्वुर में सोया रहा
सांस चलती है, ठहरती है
मैं तेरा नाम लेता रहा
सोमवार, 20 दिसंबर 2010
धूप की चादर...
क्यों जां लेने पे आमदा हैं इस कदर
यहां जीने की चाहत जवां हो रही है
फिक्र नहीं है “उनको” इसकी जरा
मेरी नजर अटकी है "नोजपिन" पर
“उनकी” आंखों का काजल कहता है
रहो अपनी हद में, तुम “सुदामा” हो
मेरे “कान्हा” ने जाने क्या सोचकर
आज धूप की चादर ओढ़ रखी है...
यहां जीने की चाहत जवां हो रही है
फिक्र नहीं है “उनको” इसकी जरा
मेरी नजर अटकी है "नोजपिन" पर
“उनकी” आंखों का काजल कहता है
रहो अपनी हद में, तुम “सुदामा” हो
मेरे “कान्हा” ने जाने क्या सोचकर
आज धूप की चादर ओढ़ रखी है...
रविवार, 19 दिसंबर 2010
भोर मुस्कुराई है...
बेलिबास चांद ने की है शिकायत
पहन रखी है आज “उसने” चांदनी
हुई है रुखसार पे बोसों की गुस्ताखी
बेमुरव्वत धूप भी है आज मदहोश
“उसका” सांवला चेहरा लाल हुआ है
सांझ ढली है, कहीं भोर मुस्कुराई है
पहन रखी है आज “उसने” चांदनी
हुई है रुखसार पे बोसों की गुस्ताखी
बेमुरव्वत धूप भी है आज मदहोश
“उसका” सांवला चेहरा लाल हुआ है
सांझ ढली है, कहीं भोर मुस्कुराई है
शनिवार, 18 दिसंबर 2010
गुरुवार, 16 दिसंबर 2010
आंखें...
बोलती हैं
गुनगुनाती हैं
गीत सुनाती हैं
कहीं रंग भरती हैं
सपने दिखाती हैं
प्यार जगाती हैं
बातें करती हैं
नाराज होती हैं
मान जाती हैं
मुस्कुराती हैं
जान लेती हैं
जिलाती हैं
तेरी आंखें...
गुनगुनाती हैं
गीत सुनाती हैं
कहीं रंग भरती हैं
सपने दिखाती हैं
प्यार जगाती हैं
बातें करती हैं
नाराज होती हैं
मान जाती हैं
मुस्कुराती हैं
जान लेती हैं
जिलाती हैं
तेरी आंखें...
बुधवार, 8 दिसंबर 2010
अब कोई गीत नहीं लिख पाता...
चाहत के सूखे पत्तों की चादर है
शायद ये पतझड़ का मौसम है
तुम्हारी कोई आहट नहीं सुन पाता
अब कोई गीत नहीं लिख पाता
इन आंखों में आशाओं का मरघट है
जीवन शायद सपनों का जंगल है
तुम्हारी कोई सुगंध नहीं पाता
अब कोई गीत नहीं लिख पाता
तुमको जीने की चाहत में
कतरा कतरा मरते थे
जीना मरना अब एक सी बातें लगती हैं
तुमको मैं जी नहीं पाता
अब कोई गीत नहीं लिख पाता
मुझसे मिलने यादों की इक रुत आई है
अगहन भादो अब एक से मौसम लगते हैं
तुम्हारी बातें भूल नहीं पाता
अब कोई गीत नहीं लिख पाता...
शायद ये पतझड़ का मौसम है
तुम्हारी कोई आहट नहीं सुन पाता
अब कोई गीत नहीं लिख पाता
इन आंखों में आशाओं का मरघट है
जीवन शायद सपनों का जंगल है
तुम्हारी कोई सुगंध नहीं पाता
अब कोई गीत नहीं लिख पाता
तुमको जीने की चाहत में
कतरा कतरा मरते थे
जीना मरना अब एक सी बातें लगती हैं
तुमको मैं जी नहीं पाता
अब कोई गीत नहीं लिख पाता
मुझसे मिलने यादों की इक रुत आई है
अगहन भादो अब एक से मौसम लगते हैं
तुम्हारी बातें भूल नहीं पाता
अब कोई गीत नहीं लिख पाता...
सदस्यता लें
संदेश (Atom)