बुधवार, 8 दिसंबर 2010

अब कोई गीत नहीं लिख पाता...

चाहत के सूखे पत्तों की चादर है
शायद ये पतझड़ का मौसम है
तुम्हारी कोई आहट नहीं सुन पाता
अब कोई गीत नहीं लिख पाता
इन आंखों में आशाओं का मरघट है
जीवन शायद सपनों का जंगल है
तुम्हारी कोई सुगंध नहीं पाता
अब कोई गीत नहीं लिख पाता
तुमको जीने की चाहत में
कतरा कतरा मरते थे
जीना मरना अब एक सी बातें लगती हैं
तुमको मैं जी नहीं पाता
अब कोई गीत नहीं लिख पाता
मुझसे मिलने यादों की इक रुत आई है
अगहन भादो अब एक से मौसम लगते हैं
तुम्हारी बातें भूल नहीं पाता
अब कोई गीत नहीं लिख पाता...

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…
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