गुरुवार, 18 नवंबर 2010

ज़िंदगी सी लगती हो...

ज़िंदगी मुस्कुराने के
बहाने कम देती है
तुम भी कहाँ
रोज मिलती हो
तुम ज़िंदगी सी लगती हो
तेरे बदन को छूती हैं हवाएं
सिहर मैं जाता हूं
सूरज रोज
तेरे आंगन में झांकता है
मैं कहूं तो किस से कहूं
देखता वो तुम्हें है
और जल मैं जाता हूं
ज़िंदगी सी लगती हो
चांद भी कम शरीर नहीं है
मैं पूछता तेरे बारे में हूं
जवाब वो तुमको देता है
ज़िंदगी सी लगती हो
चाय की इक प्याली
तुम्हारे लबों से
शीरीं हो जाती है
पीती तुम हो
भीग मैं जाता हूं
जिंदगी सी लगती हो
कभी आओ अपने घर
कि मरने से पहले
मैं इक बार जी लूंगा
तुम समझ लेना
कोई था
जो गुजर गया
मैं कहूं तो किस से कहूं
रात अंधेरा नहीं लगता
मैं अब अपना नहीं लगता
तुम ज़िंदगी सी लगती हो...

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

very romantic.....loved it really!!!!!!!!